(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
राजा और महाराजा के मध्य अहंकार की लड़ाई का मध्यप्रदेश  कांग्रेस में यह परिणाम है कि कांग्रेस पूरी तरह बिख़र रही है और भविष्य का नेतृत्व अहंकार के इस संघर्ष में अपने भविष्य को ही अंधकार में पा रहा है। प्रदेश में 15 महीनों के लिये बनी कांग्रेस की सरकार के पतन के कारण भी महाराज सिंधिया और राजा दिग्विजय सिंह के मध्य आंतरिक संघर्ष और स्वयं को सबसे बड़ा प्रमाणित करने की दुर्भावना ही थी। राजनैतिक जानने वालों का मानना है कि कमलनाथ राजा-महाराजा के इस संर्घष के मध्य एक मोहरा थे, जो बहुत हद तक दिग्विजय सिंह से न सिर्फ प्रभावित थे, बल्कि उनकी ही तरफ से इस महाभारत को लड़ रहे थे।
आज दिग्विजय सिंह और सिंधिया दोनों ने ही महाकाल से जो प्रार्थनाएं की है वो यह स्पष्ट करती है कि दोनों ही नेताओं का मानसिक स्तर कितने निम्न दर्जे का है और राष्ट्रीय या प्रादेशिक राजनैतिक में इन दोनों ही नेताओं की लोकतांत्रिक नेता के रूप में कितनी जरूरी है। दिग्विजय सिंह प्रार्थना करते हैं कि हे महाकाल, दूसरे ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में पैदा न हो, जवाब में सिंधिया भी यही प्रार्थना करते है कि हे प्रभु महाकाल दिग्विजय सिंह जैसा देश विरोधी और मध्यप्रदेश के बंटाधार भारत में पैदा न हो। 
अपने अनुभव और वरिष्ठता को दरकिनार करते हुये दिग्विजय सिंह उज्जैन में यह आरोप लगाते हं ओमकारेश्वर में शंकराचार्य की मूर्ति का काम भी गुजरात के ठेकेदार को मिला, महाकाल में दर्शन के लिये पैसे लगने लगे, और महाकाल के मंदिर की आसपास की ज़मीन आरएसएस ने लेकर उसका व्यवसायीकरण कर दिया। राजा दिग्विजय सिंह यह भी कहते है कि 25 और 50 करोड़ रूपये में विधायक खरीदने के आफर आये थे, जिसमें बड़े-बड़े महाराज बिक गये, आगामी चुनाव में हम यह ध्यान रखेंगे कि हमारा प्रत्याशी टिकाऊ हो बिकाऊ नहीं। 
राजा और महाराज के बीच का यह संघर्ष बहुत लम्बे समय से चला आ रहा है। चुकी कमलनाथ, दिग्विजय सिंह की विचारधारा से पूर्णतः प्रभावित है, इसलिए मुख्यमंत्री रहते हुये उनके कहे कथन में सिंधिया को कांग्रेस से दूर कर दिया। राजनैतिक के जानने वालों का मानना है कि कमलनाथ स्वयं की राजनीति कर रहे होते तो संभवतः उनकी दृष्टि प्रदेश के प्रशासन को चलाने में और बेहतर बनाने में होती। 
वे राजा और महाराजा के बीच के इस संघर्ष का भाग बनने के स्थान पर राज्य प्रशासनीक और औद्योगिक व्यवस्था को सुधारने पर अधिक ध्यान देते। सत्ता जाने के बाद स्वयं कमलनाथ ने सत्ता जाने से संबंधित राजनीति समप्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये दिग्विजय सिंह का नाम लिया था। वर्तमान में भी जिस तरह का प्रचार अभियान कांगे्रस द्वारा चलाया जा रहा है उसमें बहुसंख्य कांग्रेसी नेताओं का मत है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आई तो फिर एक छद्म मुख्यमंत्री के भरोसे सत्ता का संचालन किया जायेगा। शपथ यदि कमलनाथ ले भी लेते है तो मुख्यमंत्री से संबंधित कार्यो और निर्देशों के सारी जिम्मेदारी पर्दे के पीछे दूसरे मुख्यमंत्री के हाथ मे होगी, कांग्रेसियों को यह कथन अनुभव के कारण आया है। मध्यप्रदेश की स्थापना से आज तक राज्य के नेताओं ने अलग-अलग व्यवहार के मुख्यमंत्रियों को राज्य में स्वयं शासन चलाते हुये देखा है, परंतु कमलनाथ के कार्यकाल के दौरान जितने भी निणर्य लिये गये या पदस्थापना की गई वे कमलनाथ जैसे स्वच्छ छवि के एक ठोस प्रशासनिक व्यक्ति द्वारा ली हुई नज़र नहीं आती। उसमें हर शब्द के बाद व्यवसायिकता बू आती थी। बार-बार यही स्पष्ट होता था कि कोई छद्म एजेंडा इन आदेशों के पीछे निरन्तर कार्य कर रहा है। सिंधिया के पलायन से कांग्रेस को राज्य में कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि उसने पांच साल के लिये मिली हुई सत्ता को ही गवा दिया। परिणाम यह हुआ कि कमलनाथ एक कमज़ोर मुख्यमंत्री के रूप में सामने आये और राजा-महाराजा की इस परम्परागत की लड़ाई में दिग्विजय सिंह ने सिंधिया से मैदान मार लिया। इस युद्ध सिंधिया को कोई विशेष नुकसान नहीं हुआ, पर उनकी वरिष्ठता दल बदलने के साथ ही महाराज से भाई साहब में परिवर्तित हो गई। यह ग्वालियर राजघराने के लिये सबसे बड़ी चोट थी। वर्तमान में दिग्विजय सिंह पुनः अपने सारे प्रयासों के साथ सिंधिया को परास्त करने में लगे है। इसी क्रम यदि कांग्रेस सत्ता में आ जाती है तो इस वापसी का श्रेय कमलनाथ से कहीं अधिक दिग्विजय सिंह को जायेगा, परंतु इससे सिंधिया के राज्यव्यापी प्रभाव पर कोई प्रभाव पडेगा ऐसा नहीं लगता।