प्रेम कितना ही होता जाए, अधूरा ही बना रहता है। वह परमात्मा जैसा है। कितना ही विकसित होता जाए, पूर्ण से पूर्णतर होता जाता है, फिर भी विकास जारी है।  जैसे प्रेम का अधूरापन ही उसकी शाश्वतता है। ध्यान रखना कि जो चीज पूरी हो जाती है, वह मर जाती है। पूर्णता मृत्यु है; क्योंकि फिर बचा नहीं कुछ करने को, होने को कुछ बचा नहीं, आगे कोई गति न रही। जो चीज पूर्ण हो गयी, वह मर गयी। मर ही जायेगी, क्योंकि फिर क्या होगा? सिर्फ वही जी सकता है जो शाश्वत रूप से अपूर्ण है, अधूरा है, आधा है। तुम कितना ही भरो, वह अधूरा रहेगा। आधा होना उसका स्वभाव है। तुम कितने ही तृप्त होते जाओ, फिर भी पाओगे कि हर तृप्ति और अतृप्त कर जाती है। जितना पीते हो, उतनी ही प्यास बढ़ती चली जाती है। यह ऐसा जल नहीं है कि पी लो और तृप्त हो जाओ। यह प्यास को और जलाएगा।  
इसलिए प्रेमी कभी तृप्त नहीं होता। उसके आनंद का कोई अन्त नहीं है। क्योंकि आनंद का वहीं अन्त हो जाता है, जहां चीजें पूरी हो जाती हैं। कामी तृप्त हो सकता है, प्रेमी नहीं। काम का अन्त है, सीमा है; प्रेमी का कोई अन्त नहीं, कोई सीमा नहीं। प्रेम आदि-अनादि है। वह ठीक परमात्मा के स्वरूप का है। इस जगत में प्रेम परमात्मा का प्रतिनिधि है, समय की धारा में समयातीत का प्रवेश है, मनुष्य की दुनिया में अतिमानवीय किरण का आगमन है।  प्रेम प्रतीक है यहां परमात्मा का और उसका स्वभाव परमात्मा जैसा है। परमात्मा कभी पूरा नहीं होगा, नहीं तो समाप्त हो जाएगा। उसकी पूर्णता बड़ी गहन अपूर्णता जैसी है। उपनिषद कहते हैं कि उस पूर्ण से पूर्ण को निकाल लो तो भी वह पूर्ण ही रहता है। उस पूर्ण में और पूर्ण को डाल दो, तो भी वह उतना ही रहता है, जितना था। वह जैसा है, वैसा ही है; उसमें घट-बढ़ नहीं होती।  
प्रेम भी जैसा पहले दिन होता है, वैसा ही अंतिम दिन भी होगा। जो चुक जाये, उसे तुम प्रेम ही मत समझना; वह काम वासना रही होगी। जिसका अन्त आ जाये, वह शरीर से सम्बन्धित है। आत्मा से जिस चीज का भी सम्बन्ध है, उसका कोई अन्त नहीं है। शरीर भी मिटता है, मन भी मिटता है; आत्मा तो चलती चली जाती है। वह यात्रा अनन्त है। मंजिल कोई है नहीं, क्योंकि अगर मंजिल हो तो मृत्यु हो जायेगी। तो कबीर कहते हैं : ढाई आखर प्रेम का! वे प्रेम के ढाई अक्षर की तरफ इशारा तो करते ही हैं, गहरा इशारा है प्रेम के आधेपन का। प्रेमी और  प्रेयसी के बीच एक अदृश्य धारा है, एक अदृश्य आंदोलन है, एक सेतु है जिससे वे दोनों जुड़ गये हैं और एक हो गये हैं।