(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
मध्यप्रदेश में जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव की तिथियाँ करीब आती जा रही है अलग-अलग तरह की राजनीति आकार ले रही है। चुनाव प्रचार अभियान में भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस से कहीं आगे है। परंतु कांग्रेस को यह भरोसा है कि मध्यप्रदेश के मतदाता की बदली हुई मानसिकता कुछ विशेष न करते हुये भी उसे इस बार सत्ता के सिंहासन तक पहुंचा देगी। टिकिट वितरण प्रक्रिया प्रारंभ होने के साथ-साथ संतोष की सबसे बड़ी ज्वाला भाजपा शिविर में देखने को मिल रही है। जिन्हें टिकिट मिल गई है उनके विरूद्ध भाजपा के ही वरिष्ठ नेताओं और नये कार्यकर्ताओं में असंतोष के बिगुल बजा दिये है। कुल मिलाकर यह स्पष्ट होता जा रहा है कि सारी सक्रियता के बावजूद भाजपा आतंरिक असंतोष को नियंत्रित कर पाने में असफलर सिद्ध हो रही है। दूसरी ओर मुख्यमंत्री द्वारा प्रतिदिन किये जाने वाले राहत संबंधी घोषणाएं आम व्यक्ति के विचारों में कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं डाल रही है। मतदाता इन घोषणाओं को चुनाव के पूर्व सत्ता में रहते रेवडी बांटने वाले आश्वासनों से अधिक कुछ नहीं समझ रही।
भाजपा में यह द्वन्द भी तेजी से चल रहा है कि यदि सारी परिस्थितियों से निपटते हुये दल ने विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल कर लिया तो इस बार राज्य का नेतृत्व कौन करेगा। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बयान के अनुसार चुनाव जीतने के बाद नेतृत्व के प्रश्न का निर्णय केन्द्रीय कमान को करना है। इन परिस्थितियों में क्या भाजपा जातिगत आधार पर मुख्यमंत्री चुनेगी या मध्यप्रदेश की राजनीति को स्थिर करने के लिये किसी विचारवान नेता को नेतृत्व का दायित्व सौपेगी। यदि जाति के आधार पर निर्णय हुआ तो भाजपा में सिमित संख्या में वे चेहरे उपलब्ध है, जिन्हें नेतृत्व के लायक समझा जाए वह भी उन परिस्थितियों में जब विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के कुछ समय बाद ही राज्य को लोकसभा चुनाव के लिये जाना है। केन्द्रीय गृहमंत्री ने मध्यप्रदेश में दिये गये अपने यह बयान में यह तो स्पष्ट कर दिया कि राज्य का चुनाव प्रधानमंत्री के चेहरे पर लड़ा जायेगा। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि नेतृत्व चयन के समस्त अधिकार भाजपा हाई कमान के पास सिमित रहेंगे। भाजपा में नेतृत्व की चर्चाओं के मध्य सबसे बड़ा संकट यह है कि जिला स्तर तक आपसी रंजीश और तकरार इस हद तक बढ़ चुकी है कि भाजपा के घोषित प्रत्याशियों को भी अपना भविष्य संकट में नजर आ रहा है।
दूसरी ओर कांग्रेस की शीर्ष नेता प्रियंका गांधी ने मध्यप्रदेश में इस घोषणा कि संकेत दे चुकी है कि चुनाव जीतने के उपरांत कमलनाथ ही एक मात्र नेतृत्व का विकल्प होंगे। इस तथ्य को इस नजरिये से भी देखा जा रहा है कि वरिष्ठता क्रम में कमलनाथ से वरिष्ठ और अनुभवी कोई नेता कांग्रेस के पास उपलब्ध नहीं है। यह बात अलग है कि चुनाव के प्रचार अभियान के शुरू होने के पहले कांग्रेस की सक्रियता राजनैतिक रूप से बहुत कमजोर है। एक सक्षमी विपक्षी दल के रूप कांग्रेस को इस समय जिस उग्ररूप में जनता के मध्य जाना चाहिए था कांग्रेस उससे दूर है। राजनीति के जानकार यह मानते है कि जनभावनाओं में व्याप्त असंतोष को कांग्रेस अपना वोट बैंक मान रही है। प्रचार अभियान के रूप में कोई बहुत बड़ा प्रयास अभी राज्य में कांग्रेस द्वारा नहीं किया गया है। जो स्पष्ट इशारा करता है कि संसाधनों की कमी कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता इस बार कांग्रेस के लिये परेशानी का कारण बन सकती है। इसके बावजूद कांग्रेस के पास एक मात्र नेतृत्व के रूप में कमलनाथ खड़े है। राज्य की चुनावी आबो हवा में गर्मी के संकेत मिलने लगे है देखना यह होगा कि आने वाले कल में दानों ही दल किन नये राजनैतिक पेतरों का सहारा लेते हैं।