(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
अलग-अलग भाषा शैली और संस्कार से बना हुआ मध्यप्रदेश का ग्रामीण परिवेश वास्तव में एक राज्य में पूरे हिन्दुस्तान की उपस्थिति को प्रदर्शित करता है। छोटे-छोटे प्रातों को एकत्र करके बनाया गया मध्यप्रदेश वास्तव में भारत के संक्षिप्त स्वरूप का दर्शन कराता है। जहां कदम-कदम पर भाषा बदल जाती है, रहन-सहन खाना पीना, संस्कार, कला संस्कृति सब कुछ बदल जाता है। ऐसे राज्य में ग्रामीण विकास की अवधारणा भी अलग-अलग ही है। राज्य का एक हिस्सा यदि अंजानी ख़बरों से अपने स्थानीयहित को अपने रोज के जीवन को जोड़कर निरंतर उसकी समीक्षा करता है तो दूसरा हिस्सा ऐसा भी है जो केवल अवधारणा के आधार पर अपने मत का निर्माण कर उसे स्थायी बना लेता है। 
वास्तव में भारतीय परिप्रेक्ष्य में ग्रामीण विकास दर्शन शास्त्र के कई सिद्धांतों और मानवीय संस्कारों को जोड़कर प्रकृति पर आश्रित होकर एक जमीनी परिभाषा पर स्थायी रूप से खड़ा होता है। यही कारण है कि देवी-देवता, गावं की नदी कई वर्षो से वहां रहने वाले लोगों को संस्कार में मिली घुट्टी की तरह स्मरण हो आती है। मध्यप्रदेश संभवतः देश का वह राज्य है जहां विविधता के इतने आयाम है कि उसे एक दूसरे के साथ तुलनात्मक रूप से अध्ययन करना संभव नहीं है। ऐसा ही कुछ हाल विभिन्न मौसमों में अलग-अलग क्षेत्रों में पैदा होने वाली फ़सलों को लेकर भी है। इतना ही नहीं यह अकेला राज्य होगा जहां की वेशभूषा भी प्रत्येक 100 किमी के अंदर बदल जाती है।
मध्यप्रदेश राज्य में गांव की अवधारणा मूलरूप से उत्तर प्रदेश की धारणाओं पर आधारित है। नदी किनारे बसने वाले छोटे मानवी समूहों ने कई युग पहले जब गांव का रूप लिया होगा, तब से लेकर आज तक वह नदी और उसके आस-पास बना हुआ वातावरण इन ग्राम की समस्त व्यवस्थाओं को एक लय में बांधने के लिये जिम्मेवार होगा। गांव के उत्सव, धार्मिक मान्यताएं, सबकुछ एक ही सूर और राग में निरंतर प्रभावित होती है। यहा तक कि यहां बसने वाले धर्मो  के लोगों का सामाजिक संस्कार भी अलग होने के बावजूद एक विशेष पद्धति से निर्धारित होता है। मध्यप्रदेश का सम्पूर्ण दर्शन करने के बाद यदि कोई विचारक एक विशिष्ट विचार धारा को राज्य में आरोपित करना चाहे तो वह संभव नहीं लगता। राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में लिये गये बडे ग्रंथ शोधपत्र भी उस क्षेत्र या अंचल की जिसकी समीक्षा की गई हो की माटी की गंध को अपने आप में समेटे रहते है।
एक बात सामान्य है मध्यप्रदेश की ग्रामीण संस्कृति ऐसी है कि बाहरी व्यक्ति को स्वयं में स्थान देने में कोई संकोच नहीं करती। यदि किसी प्रदेश या देश का व्यक्ति मध्यप्रदेश को अपनी कर्मभूमि बनाना चाहता है तो उस पर उसके द्वारा मानी जा रही सामाजिक मान्यताओं को परिवर्तित करने का कोई दबाव नहीं रहता। परिणामतः आने वाला व्यक्ति स्वयं ही स्थानीय संस्कृति में धीरे-धीरे इस तरह खुल मिल जाता है कि एक पीढ़ी बाद ही उसे उस क्षेत्र के संस्कारों से अलग कर पाना असंभव हो जाता है। 
मध्यप्रदेश के ग्रामीण परिवेश में यह माना जा सकता है कि एक दूसरे से संवाद और विभिन्न विषयों पर स्थानीय स्तर पर होने वाली चर्चा अफवाओ का रूप ले लेती है। यही अफवा आगे चलकर एक ऐसे दृष्टि जिस पर अलग-अलग संस्कृतियां अपने-अपने तौर तरीके से इसके क्रियान्वयन में संलग्न हो जाती है। मध्यप्रदेश कभी संगठित नहीं रहा, पर यहां का ग्रामीण परिवेश कभी बिखरा हुआ भी नहीं पाया गया। टुकडों-टुकडों में बंटे हुये मानव समूह अपने-अपने क्षेत्रों में अलग-अलग माध्यमों से अपना जीवन यापन करते है। ग्रामीण परिवेश मूल रूप में कृषि आधारित है, पर राज्य में कभी भी इन ग्रामीणों ने किसी भी अव्यवस्था के विरूद्ध आंदोलन नहीं किया। राज्य का ग्रामीण विकास इसी कमजोरी का फायदा उठाकर सरकारी तौर पर पूरी तरह नकारा हो चुका है। परंतु अभी तक इन ग्रामीणों में चेतना पैदा करने के लिये कोई सशक्त नेतृत्व सामने नहीं आया है। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वर्ष 2023 विधानसभा चुनाव के बाद राज्य का ग्रामीण विकास एक बार पुनः विकसित होने के लिये एक सक्षम नेतृत्व की खोज कर लेगा।