(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
किसी भी मानवीय सभ्यता में दो प्रकार आसासी से खोजे जा सकते हैं। एक वह जो प्रकृति के करीब हो, प्रकृति पर आश्रित हो और प्रकृति के साथ अपने जीवन यापन की क्षमता रखता हो। दूसरा जो पहले प्रकार की सभी मान्यताओं को स्वीकार करता हो, पर अपनी जरूरतों के अनुसार प्रकृति का दोहन करके अपने जीवन को जीने का प्रयास करता हो, यही फर्क है ग्रामीण और शहरी व्यवस्था के मध्य। गांव हमारा जीवन है यह उक्ति किताबों में न जाने कितनी बार सबने पढ़ी होगी। आज भी जब हम आधुनिक संसाधानों के माध्यम से शहरी सीमाओं को लांघकर ग्रामीण परिवेश में पहुंचते  हैं तो वहां का वातावरण हमें एक सुकून और मुक्ति का एहसास होता है। इसका सबसे प्रमुख कारण यही है कि मानव के विकास की श्रखंला की शुरूआत ही जन्म के समय के साथ प्रकृति के साथ होती है और जीवंत रूप में प्रकृति का प्रारंभिक और अंतिम एहसास है, ग्रामीण परिवेश। समय के साथ-साथ शहरी और ग्रामीण दोनों ही विकसीत होने वाले क्षेत्रों में माने जाने लगे थे। परंतु चकाचैंध की दौड़ में हमेशा से ग्रामीण परिवेश को पीछे ढकेल दिया। परिणाम यह हुआ कि प्रकृति के साथ निरन्तर परिचय और सदभाव की भावना दूर होती चली गई।
वास्तव में गांव देश की आत्मा है। वहां रहने वाले उसके संस्कारों में निरन्तर जीने वाले लोग वो अमूल्य धरोहर है, जो कई हजार साल पुराने मान्यताओं, परम्पराओं और सिद्धांतों को आज तक जीवित रखे हुये हैं। ग्राम जीवन उतना कठिन नहीं है जितना शहरों में रहने वालों का जीवन। छोटी-छोटी जरूरतें प्राकृतिक संसाधनों के भरोसे समस्याओं का निराकरण इस जीवन की नियमित शैली में आज भी शहरी क्षेत्र में रहने वाले लोगों अपेक्षा गांव का रहने वाला कोई आदमी शारीरिक और मानसिक रूप से कहीं अधिक मजबूत होता है। इसका प्रमुख कारण उसके पास प्रकृति के प्रति स्वीकार्यता शहरी लोगों से कहीं ज्यादा है। वो प्रकृति को अपने रंग में नहीं ढालना चाहता स्वयं प्रकृति की रंग में ढल जाता है। एक सामान्जस्य है जो मानव विकास के लिये कई ऐसे सिद्धांतों का निर्माण करता है जिसे कथित तौर पर पढे लिखे लोग रूढ़ीवादी या परम्परावादी मानकर दर किनार कर देते है।
बहते हुये जल की प्रवृत्ति को यदि बारीकी से अध्ययन करें तो धारा बड़ी हो या छोटी आपको स्वयं अपने साथ ले जाने के लिये तत्पर हाती है। शहरी मानसिकता धारा के विरूद्ध खड़े होकर धारा के प्रवाह का वेग नापने तक सीमित है। जबकि ग्राम जीवन सहज रूप से धारा के साथ होकर उसकी निर्मल शीतलता और वेग को ग्रहण करता है। 
भारत ही नहीं समूचे विश्व में ग्रामीण क्षेत्रों का विकास शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा कम हुआ है। इस तथ्य से शहरी लोग खुश हो सकते हैं उन्होंने ग्रामीण व्यवस्था को पछाड़ दिया। परंतु गांव में रहने वाला व्यक्ति इस तथ्य से अनजाना रहकर आंनदित है कि उसने प्रकृति के साथ अपना पूरा जीवन जी लिया। विकास के मामले में ग्रामीण क्षेत्र कहीं पिछ़डे हुये है। वर्तमान सरकारों के लिये किसान या गांव के लोगों आज भी चिंता का विषय रहें हैं। एक खिलवाड़ चलता है जिसमें किसान को अन्नदाता तो माना जाता है पर उसके घर पनप रही गरीबी या बेचारगी को दूर करने के लिये कोई ठोस कमद नहीं उठाये जाते। योजनाएं बनती है और खलियान में उड़ते भुसे के तरह अज्ञात में लुप्त हो जाती है। आजादी के पहले से लेकर आज तक ग्रामीण व्यवस्था एक योजना बद्ध तरिके से विकसित नहीं की जा सकी। यह बात अलग है कि कुछ पढ़े लिखे विद्वान विचारों ने शोध और सर्वेक्षण कार्य करके इस बिगड़ती हुई व्यवस्था के प्रति चिंता जरूर व्यक्त की है। विकास के मामले में गांव इतने पीछे है तो सूचनाओं के आदान-प्रदान या समाचारों में स्थान पाने के लिये वे किस तरह संघर्ष करते हांेगे इसका अंदाज लगाना पाना मुश्किल नहीं  हैं। राजधानी से चलने वाली किसानों के उपयोगी छोटी सी जानकारी कुछ 100 किमी दूर बैठे हुये पीढ़ित किसान तक पहुंचने में कई महीनों का समय ले लेती है। परिणाम यह होता है कि अपनी समस्या से निपटने के लिये तत्काल हल के आभाव में या तो किसान समस्या का शिकार हो जाता है या फिर परम्परागत शैली में अन्य किसी जाल में फंस जाता है, जिस पढे़ लिखे लोग अधंविश्वास कहते है। 
आजादी के बाद से आज तक ग्रामीण व्यवस्था के साथ सीधा सम्पर्क बनाये रखने के लिये किसी भी तरह के संचार माध्यम के बारे में गंभीरता से विचार नहीं किया गया। दूरदर्शन या रेडियों पर कुछ कार्यक्रम चलाकर या गांव में छोटी-छोटी गोस्टियां आयोजित कर सामाजिक सक्रियता के उदाहरण सरकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये। एक बात तय है कि सरकारें इस बात से भी डरती रही है कि मजबूरी में फ़सी हुई ग्राम विकास की धारणा को विकास की और मोड़ना भविष्य में एक राजनैतिक संकट को जन्म दे सकता है। स्वयं के प्रति लापरवाह और स्वयं की समस्याओं के वास्तविक हल से अंजान किसान यदि जान गया कि संविधान में उसको भी कई अधिकार दिये है जो शहरी व्यवस्था से कम ताकतवर नहीं है, तो राजनीति पर एक नया संकट खड़ा हो जायेगा। सम्भवतः इसलिये किसानों के बीच से पैदा हुये बढे किसान नेता जो कालान्तर में केन्द्रीय मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री जैसे पदों पर आसीन हुये ने भी ग्राम विकास की व्यवस्थाओं को कभी कोई बल नहीं दिया। केवल बयानों के मध्यम से अपनी चिंता का इज़हार करके उन्होनें अपने कर्तव्यों की पूर्ति कर ली। ग्रामीण विकास जहां कल खड़ा था आज भी वहीं खड़ा है पर इस नाम से लाखों करोडों  खर्च किये जाते थे, आज यह बजट करोड़ो अरबों में पहुंच चुका है। परंतु धूप में सर पर पगड़ी रखे हाथ में एक लाठी लिये हुये चलने वाली आज़ादी के पूर्व की व्यवस्था आज भी वहीं खड़ी है। यदि गांव-गांव के मध्य जानकारियां बढ़ी, संवाद बढे़ मिलने के नये कारणों की खोज हो, कुछ विषयों पर बहस हो और इस सब का दस्तावेजीकरण किया जा सके, तो शायद आने वाले 50 साल भी ग्राम विकास का प्रतिशत कुछ मात्रा में ही सही बढ़ता हुआ नज़र आयेगा। आधुनिक संचार माध्यमों के जरिये यदि सूचनाओं को आदान-प्रादान समय रहते समय सीमा में हो सकने में संभव हो तो ग्रामीण विकास की अवधारणा फलिफूत हो सकती है।