(Advisornews.in)
आदिवासियों को "पेसा" तो मिलेगा पर "पावर" नही...!
भोपाल (एडवाइजर):  आदिवासियों को "पेसा" तो मिलेगा पर "पावर" नही...! अपने एमपी में इन दिनों आदिवासी प्रेम की वैतरणी बह रही है! अगर मौसम विभाग तापमान की तरह सरकार के "आदिवासी प्रेम" का पैमाना नापे तो शायद उसकी नापने की मशीन ही "बैठ" जाए! क्योंकि विधानसभा से लेकर आदिवासियों के टपरों तक जिस गति से "प्रेम" प्रवाहित हो रहा है उसे नाप पाना किसी के भी बस की बात नही हैं। सब कुछ "आदिवासी मय" होता दिख रहा है।
 लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आदिवासियों को उनके हक के मुताबिक सत्ता में हिस्सेदारी आज तक नही मिली है! 1956 से लेकर 2022 तक  आदिवासियों के नाम पर कहा तो बहुत कुछ गया लेकिन ऐसा कुछ भी नही किया गया जिससे यह माना जाय कि उन्हें उनका असली हक मिला!वे शोभा की वस्तु से आगे बढ़ पाए हैं।
 यह तो आप जानते ही हैं कि सन 1956 में एमपी बना था। सन 2000 में उसका बंटवारा आदिवासियों के नाम पर किया गया। तब छत्तीसगढ़ राज्य बना!बंटवारे से पहले एमपी में विधानसभा में कुल 320 सीटों में से 75 आदिवासियों के लिए आरक्षित थीं।लोकसभा की 40 सीटों में से 9 आदिवासियों को दी गई थीं।राज्य के बंटवारे के बाद यह संख्या घटकर 47 और 6 रह गई!
 मजे की बात यह है इतनी बड़ी संख्या के बाद भी आज तक एमपी में कोई आदिवासी नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंचा है। हां कांग्रेस ने कौम को बहलाने के लिए उप मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आदिवासी को बैठाया। लेकिन बीजेपी ने तो वह भी नही किया।
 ऐसा नहीं है कि प्रदेश में ताकतवर और जनाधार वाले नेता नही हुए! नेता थे और हैं लेकिन वे अपने आगे अड़े नेताओं से नहीं जीत पाए।मजबूरी में उन्हें उनके पीछे ही खड़ा होना पड़ा। आपसी एकजुटता की कमी और कौम के नेताओं का लालच भी एक बड़ा कारण रहा।
 अविभाजित एमपी में एक से एक आदिवासी नेता हुए।लेकिन कांग्रेस के समय में वे अगड़े नेताओं से पिछड़ गए और बीजेपी के समय में पिछड़ों से दब गए।
 कांग्रेस में कई दिग्गज नेता हुए हैं। इनमें भागीरथ भंवर, मंगू उइके, बसंत राव उइके, शिवभानु सोलंकी,दिलीप सिंह भूरिया, जमुना देवी, झुमक लाल भेड़िया,अरविंद नेताम, शिव नेताम, प्यारेलाल कंवर , दलवीर सिंह ,भंवर सिंह पोर्ते,महेंद्र कर्मा,अनुसूया उइके, सूरज सोलंकी, कांतिलाल भूरिया और गंगा पोटाई जैसे अनेक नाम शामिल हैं।लेकिन इनमें एक भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाया।राज्य और केंद्र की सरकार में मंत्री तो कई नेता रहे लेकिन अहम पद कभी किसी को नहीं मिला। 
1980 में शिवभानु सोलंकी मुख्यमंत्री की कुर्सी के सबसे तगड़े दावेदार थे लेकिन कुर्सी अर्जुन सिंह को मिली थी। 1993 में पिछड़े और आदिवासी नेताओं को पछाड़ कर दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने। उन्होंने एक पिछड़े (सुभाष यादव)और एक आदिवासी (प्यारेलाल कंवर) को उपमुख्यमंत्री बना कर यह संदेश दिया कि उनकी सरकार में सबको उचित हक मिला है। लेकिन इसकी हकीकत उनसे बेहतर कौन जानता था।उनकी उपमुख्यमंत्री जमुना देवी ने तो यहां तक कह दिया था कि वे दिग्विजय के "तंदूर" में जल रही हैं! आपको बता दें कि दिल्ली के कांग्रेस नेता सुशील शर्मा ने अपनी पत्नी नैना साहनी को मारकर तंदूर में जला दिया था।उस समय कांग्रेस में तंदूर खूब चला था।
 उसी दौरान झाबुआ के बड़े आदिवासी नेता दिलीप सिंह भूरिया और छिंदवाड़ा की अनुसुइया उइके ने कांग्रेस छोड़ी थी। दोनों बीजेपी में गए थे।दिलीप सांसद बने थे। अनुसुइया अभी छत्तीसगढ़ की राज्यपाल हैं।
 छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी आदिवासी कोटे के मुख्यमंत्री बताए जाते थे।लेकिन उनकी जाति हमेशा विवाद में रही।सतनामी समाज में जन्में और ईसाई धर्म अपनाने वाले जोगी हमेशा विवादों में रहे।आदिवासियों ने उन्हें कभी अपना नही माना।
आज भी कांग्रेस में कई आदिवासी नेता हैं।लेकिन चाहे एमपी हो या छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री की कुर्सी से उन्हें दूर ही रखा जाता है।
 बीजेपी में भी यही हाल है। संघ पिछले तीन दशक से आदिवासियों के बीच काम कर रहा है। उसे सफलता भी मिली है। लेकिन वह आज तक एक ऐसा नेता सामने नही ला पाया है जिसे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया जा सके। मंडला के सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते लगातार लोकसभा चुनाव जीत रहे हैं। लेकिन उन्हें मोदी मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री का पद ही दिया गया है। वे स्वतंत्र प्रभार के लायक भी नहीं माने गए हैं।
 अविभाजित मध्यप्रदेश में नंदकुमार साय बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे थे।वह छत्तीसगढ़ के थे। उस समय कई और नेता भी मुख्यधारा में थे।दिलीप सिंह जूदेव एक बड़ा नाम था। वे लोकसभा भी पहुंचे थे।लेकिन जब छत्तीसगढ़ में बीजेपी सत्ता में आई तो उसने किसी आदिवासी की बजाय राजपूत नेता डाक्टर रमन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया।रमन 15 साल तक छत्तीसगढ़ के मुखिया रहे।आदिवासी राज्य छत्तीसगढ़ में ऐसा ही कांग्रेस ने किया है।उसने भी आदिवासी नेता को आगे लाने के बजाय एक पिछड़े नेता को मुख्यमंत्री बनाया है।
 मध्यप्रदेश में भी ऐसा ही हो रहा है। बातें आदिवासियों की होती हैं लेकिन सत्ता का मुकुट अब पिछड़े नेताओं के लिए आरक्षित हो गया है।
 2003 में बीजेपी जब सत्ता में आई थी तब उमा भारती (लोधी) मुख्यमंत्री बनी थीं। 9 महीने बाद जब वे हटीं तो बाबूलाल गौर(यादव) को मुख्यमंत्री की कुर्सी दी गई।करीब सवा साल बाद जब गौर गए तो शिवराज सिंह चौहान(किरार) को ताज पहनाया गया।करीब 17 साल से शिवराज एमपी के मुख्यमंत्री हैं।
 इस अवधि में संघ ने आदिवासियों के बीच बहुत काम किया है। लेकिन वह भी मुख्यमंत्री की कुर्सी के लायक एक आदिवासी नेता तैयार नहीं कर पाया है। आज भी शिवराज की कैबिनेट में राजपरिवार से जुड़े व्यक्ति को आदिवासियों का प्रतिनिधि माना जाता है। सामान्य आदिवासी नेताओं को मंत्रिमंडल में कोई अहम विभाग तक नहीं दिया गया है।
 लेकिन पिछले कुछ सालों से आदिवासियों के नाम पर भारी हंगामा सरकार और बीजेपी कर रही है।बिरसा मुंडा को भगवान के रूप में स्थापित किया गया है। गोंड रानी कमलापति के नाम पर स्टेशन बना दिया गया है।टंट्या भील अब टंट्या मामा हो गए हैं। उनके नाम पर अनेक योजनाएं घोषित की जा चुकी हैं। उनका भव्य स्मारक भी बन गया है।
 राष्ट्रीय स्तर पर द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बना कर बीजेपी नेतृत्व अपनी पीठ लगातार ठोक रहा है। सरकारी दस्तावेजों को गौर से देखा जाए तो यही लगेगा कि कम से कम एमपी में तो सारे काम आदिवासियों के लिए ही हो रहे हैं।
 इसी श्रंखला में एमपी की सरकार इन दिनों पेसा पेसा खेल रही है। खुद मुख्यमंत्री आदिवासियों के बीच जाकर उन्हें पेसा के फायदे बता रहे हैं। आदिवासियों को उनके हक बता रहे हैं। दो दिन पहले विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव का उत्तर देते समय मुख्यमंत्री देर तक पेसा की ही बात करते रहे।
 मजे की बात यह है कि आज जिन आदिवासी अधिकारों का ढिंढोरा पीटा जा रहा है उनका उल्लेख संविधान की छठी अनुसूची में है। इस बारे में मध्यप्रदेश की सरकारें पहले भी बात करती रही हैं।
 मई 1995 में राज्य की ओर से केंद्र को प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में संविधान की छठी अनुसूची को लागू करने के बारे में लिखा गया था। यह भी बताया गया था कि इसे लागू करने के बाद क्या क्या बदलाव होंगे।
 बीजेपी अब राज्य की सत्ता में करीब 20 साल पूरे करने वाली है। इसमें करीब 17 साल से शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री हैं।केंद्र में भी बीजेपी की सरकार को नौवां साल है। इस अवधि में कभी भी पेसा कानून की बात इतनी शिद्दत से नही हुई।
 अब हो रही है!क्यों हो रही है सब जानते हैं। खुद आदिवासी भी अपनी अचानक बढ़ी पूंछ परख से वाकिफ हैं। दरअसल यह चुनाव का साल है।विधानसभा की 47 सीटें आदिवासियों की हैं। 2018 के चुनाव में बीजेपी 29 सीटें हार गई थी।इस वजह से उसकी सरकार नही बन पाई थी।
 इसी वजह से सरकार आदिवासियों को रिझाने में जुटी है। इस प्रेम के बीच जमीनी हकीकत भी सामने आती रही है। राज्य में आदिवासी किस हाल में हैं ? यह जानने के लिए नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ही काफी है। रिपोर्ट के मुताबिक आदिवासियों के प्रति अपराध में एमपी सबसे आगे है।2020 की तुलना में 2021 में ऐसे अपराध 6.4 प्रतिशत बढ़े हैं। 2021 में कुल 8802 मामले दर्ज किए गए। जबकि 2020 में यह संख्या 8272 थी। इनमें महिलाओं के प्रति अत्याचार के मामले सबसे ज्यादा हैं।
 प्रदेश की जमीनी हकीकत यह है पेसा के शोर के बीच अशोक नगर के मढ़खेड़ा गांव के मोहन आदिवासी को मरने के बाद श्मशान तक नसीब नहीं हुआ।उसे दूसरे के खेत की मेढ़ पर जलाया गया।यह घटना शुक्रवार की है।
 यह कोई नई बात नहीं है। आदिवासियों पर अत्याचार की खबरें रोज आती ही रहती हैं।अखबारों में छप कर बात खत्म हो जाती है।
 इसके अलावा यदि देखें तो आदिवासियों के लिए सरकार में आरक्षित पद खाली पड़े हैं। आदिवासी इलाकों में स्कूलों में शिक्षक नहीं है।अस्पतालों में डाक्टर नहीं।अन्य मूलभूत सुविधाओं की कमी है। उनकी जमीन गलत ढंग से हथियाई जा रही हैं।उनके बच्चों के छात्रावासों में सामान्य सुविधाएं नही हैं।
 और तो और पेसा की जानकारी देने जा रहे सरकारी अफसर भी महज रस्म अदायगी कर रहे हैं। वे अपना बोतलबंद पानी पीकर आदिवासियों को साफ पेयजल मुहैया कराने की बातें कर रहे हैं।
 पर जो भी हो पूरे एमपी में चारो ओर आदिवासी आदिवासी खेला जा रहा है। मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं देंगे!मंत्रिमंडल में कोई अच्छा विभाग नहीं देंगे। सरकार में खाली पड़े पदों पर नौकरी नहीं देंगे!स्कूल में टीचर नहीं देंगे।अस्पताल में डाक्टर नहीं देंगे।पर्याप्त राशन नही देंगे।बच्चों का पोषण आहार बिचौलिए खायेंगे। 
लेकिन अखबार में भरपूर विज्ञापन देंगे!विधानसभा में लम्बा भाषण देंगे! हर कार्यक्रम में आदिवासियों को नचाएंगे!चिल्लाकर पेसा की बात करेंगे!
 क्यों न करें?आखिर अपना एमपी गज्ज़ब जो है!है कि नहीं!!?
अरुण दीक्षित की ओर से साभार