(Advisiornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
उन नेताओं ने जो विधानसभा के वर्तमान कार्यकाल के दौरान कमलनाथ की सरकार को रातोरात धाराशाही कर भाजपा की ओर चले गये, को कब तक यह प्रताड़ना झेलनी पड़ेगी कि उन्हें दगाबाज या भितरघाती महामाननीय के दायरे में रखा जाए। सार्वजनिक मंचों से कांग्रेस सिंधिया के साथ गये हुये विधायकों के चरित्र का चित्रण कई सालों तक करेगी। राजनीति का इतिहास करोडों रूपये में पार्टी छोड़ कर विरोधी दल में जाने के इस घटना क्रम को बार-बार दोहराता रहेगा। राजनीति का इतिहास जब भी राज्य के दायरे में लिखा जायेगा, कमलनाथ की सरकार का गिरना और उससे संबंधित समस्त घटनाक्रम एक ओर अहंकार की कहानी कहेंगे। तो दूसरी ओर राजशाही में अपने से बड़े को धव्स्त करने का षड़यंत्र। तीसरी ओर कुछ पैसों और पद के लिये राजनैतिक संस्कारों की तिरांजलि देने वाले नेताओं की व्यथा-कथा कहेंगे।
मामला इतने में ही ठहर जाय तो ठीक है, पर अपने घर को छोड़कर दुश्मन की गली सवारने वाले इन नेताओं को अब दुश्मन के घर से ही उत्पीड़न अव्हेलना झेलनी पड़ रही है। कोई इन्हें जयचंद कहता है, तो कोई विभीषण और कोई रामायण के पत्र बाली के विरूद्ध खड़ा हुआ सुग्रीव। एतिहासिक पात्रों के माध्यम से राजनीति का यह पलायन कई वर्षो तक महत्वपूर्ण बना रहेगा। लोग यह स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं करेंगे कि एक युग में पैसा और प्रभाव अहंकार के साथ मिलकर राजनीति की धारा बदलने में कामयाब रहा था।
अब लम्बा समय गुजर चुका है, आने वाले निर्वाचन में इस गुट को भी भाजपा में अपनी जमीन मजबूत करनी होगी। एक आंतरिक संघर्ष प्रारंभ होगा जो विस्थापितों और स्थायी सदस्यों के मध्य होगा। स्थायी सदस्यों में संघ से प्रशिक्षित पीढ़ियों से कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले भाजपाई होंगें और दूसरी ओर वह समूह होगा जिसमें भाजपा में प्रवेश के बाद लगातार न सिर्फ सत्ता सुख भोगा है बल्कि भाजपा के प्रभावशील नेताओं से कहीं अधीक मांग, प्रतिष्ठा और धन अर्जित किया है। यह बात अलग है कि विस्थापितों का यह समूह अभी भी भाजपा में स्वीकार्य नहीं है। यह समूह स्वयं नहीं जानता कि भाजपा में किस व्यक्ति या परिवार की कितनी गरिमा और संरक्षण है, स्वयं सेवक संघ की मान्यताओं के अनुसार कैसे किया जा सकता है। पिछली बार के उपचुनाव में केवल सरकार बनाने के लिये भाजपा के कई पुराने सदस्यों ने अपनी सीटे दान की थी। उस दान की फलस्वरूप उन्हें कोई राजनैतिक प्रतिष्ठा मिली ऐसा इतिहास नहीं मिलता। यह निश्चित है, यही समूह इस बार अपने पुराने क्षेत्र से विस्थापित समूह को अलग कर एक नये मार्ग की खोज करेगा जो उन्हें उनकी पुरानी मान और प्रतिष्ठा से जोड़ सकें।
वैसे भी भाजपा में अब वो पुरातन पंथी संस्कार नजर नहीं आते जहां चना-गुड़ खाकर संघ के आदर्शो की रक्षा के लिये भाजपा को राजनैतिक समर्थन दिया जाता था, अब संघ से ज्यादा प्रमुख भाजपा स्वयं हो चुकी है। संभवतः पूर्व में काम करने वाले लोगों को भी सत्ता का महत्व समझ में आ गया है और यह तय हो गया है कि शाखा में सीखा गया अनुशासन जिस लक्ष्य की स्थापना करता है उसकी पूर्ति के लिये भाजपा के माध्यम से राजनीति के शिखर पर पहुंचना जरूरी है। बदलती हुई परिस्थितियों में भाजपा का बदलता हुआ स्वरूप आने वाले कल में विस्थापितों को विशेष रूप परेशान करने वाला है। यह कह देना कि सिंधिया के रसूख को भाजपा स्वीकार कर अपनी एकरूपता बनाये रखना गलत होगा। सिंधिया के सामने भी चुनौती है और सबसे बड़ी चुनौती उन विस्थापितों के सामने है जो अपना बसा हुआ घर उजाड़ कर स्वयं शरणार्थी बनें भाजपा में प्रवेश कर गये थें।